शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

खुला आसमान

हँसी भी रोग सा लगता हैं,
काम भी अब बोझ सा लगता हैं।
शाम अब रात सी नीरस सी लगती हैं,
क्योकि साथ भी अब दूरी से बदल गयी है ।

हिसाब माँगा था हमने जिनसे न कभी महलो ताजो का,
आज ले रहे वो हमसे रसीद भी उन कीलो और धागो का।
जिनके भरोसे थी टिकी समय की टिक टिक और बाँधी,
थी उनकी बाहर की दुनिया में झांकते खिड़कियों के परदे।

उजाला भी शर्माता था जिनके हुस्न के आगे,
आज अँधेरा भी गरजता है अपने गुरुर पे।
समय सभी का आता है ये तो हमने सुना था लेकिन,
पता न था आ जाता है समय किसी का जाने से पहले।

उठी है जो ये अंकुर अब इसे थोड़ा और रहने दो,
बने ये वृक्ष या तरुवर महान थोड़ा और जागने दो।
न रोको पौधो को जड़ो को फ़ैलाने से आज सम्मान,
दो इसे भी अनंत रिक्त जमीन और खुला आसमान।।



शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

गुनाह

ये सुबह भी बहुत अजीब होती हैं
बच्चों के रंगीन सपने तोड़ती हैं।
टिमटिमाते तारो से दुश्मनी लेकर
धुप की उजियारी चादर ओढ़ती हैं।।

खुद को हर किसी की नजर से गिराया
न दिया हिसाब न दिया कोई बकाया।
ओढ़ते रहा गुनाह की चादर कुछ यूं
न नजर बची न नजरिया बचा पाया।।

राह

भटकाव है या जो फितरत है तुम्हारी  जो तुम अपने रास्ते अलग कर जाओगे  दर्द हो या तकलीफ या हो कोई बीमारी  देख लेना एक दिन यूँ बहुत पछ्ताओगे  राह...