गुरुवार, 30 जून 2022

धूप

जब धूप हो बाल्टी भर
भूख समुद्र से बढ़ कर
मजदूर भागे काम पर
क्षुधा अग्नि के नाम पर।

श्रम के स्वेद से स्नान कर
अपनी छाती तान कर
कर्म को ही पूजा मानकर
मालिक के काम आसान कर।

निकलता जब काम तमाम कर
झुकी कमर थकी आंखे ले कर
घर पहुंच परिवार से मिल कर
थकान हो जाती न के बराबर।

अगली सुबह की तैयारी सोच कर
मन को शांत करने कोशिश कर
सो जाता चक्षु जल को सुखों कर
आज से अच्छे दिन की उम्मीद कर।


अमित(Mait)

बुधवार, 29 जून 2022

वार(धर्म)

यूं ख्वाबों को हकीकत से न तौला जाए
हर बार कांटों को फूलो से न मोला जाए
जब बिखरने लगे घर के हिस्से हिस्से
उन टुकड़ों को घर ना माना जाएं।

गर चाहते मार कोई अपना ना खाएं 
हर बार मूक दर्शक बन न देखा जाए
हर बार हर वार न खुद ही झेला जाए
कभी तो इस वार में खुद कूदा जाएं

लिख रहा सिर्फ ये न समझा जाएं
हो शंका गर तो मेरे घर आया जाएं
जानते नही क्या बताए या छुपाएं
निःसंदेह इसे चेतावनी समझा जाएं।

जल रही है जो अग्नि विश्व के बाएं दाए
होगी जब समाहित एक ही ध्वज के साये 
तब न बच पाएगी कोई काली घटाएं 
पूरे विश्व में एक ही धर्म ध्वज फहराएं ।

-अमित(Mait)

मंगलवार, 28 जून 2022

सुलझी साँझ

सुबह की पहली किरण से किया प्रण ये
चाहे हो दिन कितना भी बोझिल और तंग
सांझ होगी हर हाल में सुकून के आवरण में।

गया जब सूची थी लंबी कर्म भूमि पर
वरीयता दे प्रारंभ किया जो कार्य-कर्म
भीगता रहा अपने उलझनों से दिन भर।

उम्मीद थी की सांझ तक सब हो जायेगा 
जो बिगड़ा था मेरा सब अब बन जायेगा
सुखद दास्तां के कुछ पृष्ठ तो लिख पाएगा।

शाम की तस्वीर कुछ यूं बिगड़ी
थकी आंखे होने लगी बोझिल
उम्मीद की तस्वीर हुई ओझल।

दिन गया ढल न मिल सका फल
लक्ष्य को लगा देंगे अब पूरा बल
कमाल होगा कल उम्मीद ही हल।

अमित(Mait)

सोमवार, 27 जून 2022

धुली हुई स्याही

समय के पन्ने की तंदुरुस्ती लगी घटनी
समय बीता और स्याही होती गई धुंधली
लिखा था जो सत्य मुश्किल हुआ पढ़ना 
लोग निकाल रहे मतलब अब अपना अपना।

जिसने देखी स्याही उस किताब की
खुद ही दी गवाही उस ख्वाब की
जो सत्य सबकी नजरों से बचा रहा
हर पल पास अपने मुझे ही बुला रहा।

हो शांति जैसे किसी अंधेरे कोने में बैठी शोर
पता नही क्यों वो झांके वक्त बेवक्त मेरी ओर
पानी से भी ज्यादा प्यास की लगा रही जोर 
जैसे इंतजार अंधेरी काली रात के बाद भोर।

धो डाला हर पन्ना जिसमे थी गुनाह की छाया
धो डाली हर पंक्ति जिसमे थी बदइंतजामी
मिटा डाला हर दाग जो लगा था इस पर
अब तैयार था दिशाहीन एक नये पथ पर।

धो न पाया पर अपने मन को क्षण भर
क्योकि पढ़ लिए थे वो सारे धुंधले अक्षर
बन गए थे वो सागर से भी गहरे जलभर
स्मृति कागजी होती तो मिटा देते पर।

धोया इतना मन को हमने
पड़ गए छाले हाथो में हमारे
शांति और एकाग्रता तो मिले 
वस्त्र हुए स्वेद और रक्त से गीले।

धो धो कर धुल गए 
धोने के सपने
धो न पाए जो दुःख
थे और हैं अपने।

 - अमित (Mait)

शुक्रवार, 24 जून 2022

ललकार

सुधार
........करनी होगी


बिगड़ी जो तबियत है
रूठी जो किस्मत है
वक़्त की जो जरूरत 
हालात की मरम्मत।

वक़्त की ये ललकार
नव किरणों की बौछार
पक्षियों की चहचहकार
रात की वो करुण पुकार।

जब हार पहुंच चुकी हो द्वार पर
सेना का मनोबल हो ढलान पर
तब जो हो लड़ने को जोश भर
जीत उसी की निश्चित तौर पर।

टूटती हुई पंक्तियों से
भाव जोड़ने की
कोशिश इस हार को 
जीत में बदलने की।

राह

भटकाव है या जो फितरत है तुम्हारी  जो तुम अपने रास्ते अलग कर जाओगे  दर्द हो या तकलीफ या हो कोई बीमारी  देख लेना एक दिन यूँ बहुत पछ्ताओगे  राह...