समय बीता और स्याही होती गई धुंधली
लिखा था जो सत्य मुश्किल हुआ पढ़ना
लोग निकाल रहे मतलब अब अपना अपना।
जिसने देखी स्याही उस किताब की
खुद ही दी गवाही उस ख्वाब की
जो सत्य सबकी नजरों से बचा रहा
हर पल पास अपने मुझे ही बुला रहा।
हो शांति जैसे किसी अंधेरे कोने में बैठी शोर
पता नही क्यों वो झांके वक्त बेवक्त मेरी ओर
पानी से भी ज्यादा प्यास की लगा रही जोर
जैसे इंतजार अंधेरी काली रात के बाद भोर।
धो डाला हर पन्ना जिसमे थी गुनाह की छाया
धो डाली हर पंक्ति जिसमे थी बदइंतजामी
मिटा डाला हर दाग जो लगा था इस पर
अब तैयार था दिशाहीन एक नये पथ पर।
धो न पाया पर अपने मन को क्षण भर
क्योकि पढ़ लिए थे वो सारे धुंधले अक्षर
बन गए थे वो सागर से भी गहरे जलभर
स्मृति कागजी होती तो मिटा देते पर।
धोया इतना मन को हमने
पड़ गए छाले हाथो में हमारे
शांति और एकाग्रता तो मिले
वस्त्र हुए स्वेद और रक्त से गीले।
धो धो कर धुल गए
धोने के सपने
धो न पाए जो दुःख
थे और हैं अपने।
- अमित (Mait)