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रविवार, 9 मई 2021

विषाणु का अंत

आसमान में बादल तो है बहुत
बादलों में है पानी की किल्लत
इंसानी धमनी शिराओं में जो रक्त
नहीं रह गया अब उबाल वो तप्त
धूमिल हो रही मानवता इस वक़्त
हो रही बेहिसाब मौते वक़्त बेवक़्त
अगर जाग जाती मानवता उस वक्त
टूट रही थी सांसे प्रकृति की दरख़्त
उठाना जरूरी था कदम बहुत सख्त
लालच लालसाओं से झुके वो तख़्त
न कर पाए कोई समझौता उस वक़्त
अब प्रकृति के झेलो ये वार सख़्त...


सुबह का अंधेरा कुछ इस कदर बढ़ा हैं
दरवाजे पे जैसे कोई मौत लिए खड़ा हैं
बाहर से आती हवा में भी ज़हर भरा हैं
सारी दुनियाँ रेगिस्तान सिर्फ घर घड़ा है
वो प्यास और भूख से जो सिर्फ लड़ा है
परिवार की छाया में जो पला - बढ़ा है
बाहर का राक्षस बाहर ही मरा है
घर मे जब जगह उसे न मिला है
विषाणु का अंत सिर्फ ऐसे ही रचा है✍️

राह

भटकाव है या जो फितरत है तुम्हारी  जो तुम अपने रास्ते अलग कर जाओगे  दर्द हो या तकलीफ या हो कोई बीमारी  देख लेना एक दिन यूँ बहुत पछ्ताओगे  राह...