रविवार, 7 अगस्त 2022

साल बीते

आज यूं चलते चलते तुम्हारी याद आ गयी 
तूफान के शोर में ये वीरानी क्यों छा गयी 
संग चलते चलते क्यों ये रस्ते बदल गए
हम कही थे और तुम कही निकल गए। 

तुम साथ थी तो पानी भी शराब लगती थी 
ये अमावस की रात भी गुलजार लगती थी 
न जाने किसकी नजर लगी दिन जो बीती 
बदल गयी समय की गति और परिस्थिति। 

चेहरा चाँद सा ना जाने किस आकाश में है 
खोजने के खातिर दर बदर भटक रहा है
शायद खोज न अब इस जन्म पूरी होनी है 
अब मेरी उम्मीदें खोखली आंखे सूनी है। 

साल बीते अब दो हजार पाँच सौ पांच 
आशा ना छूटी न आयी ना कोई आँच 
सिद्धार्थ से थेरा तक को दुनियाँ जानती
भूली क्यों जसोधरा माया को न मानती। 

-अमित 

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