शनिवार, 18 अगस्त 2018

गीली मिट्टी

विकसित विचारधारा की खोज में  संभावना के सागर में बहती मेरी सोच की नाव न जाने कब उस किनारे पहुँचेगी कई बार मैंने बाहरी समस्याओँ के तूफान झेले है तो कभी असत्य का जहर पिया है रास्ता इतना भी मुश्किल न था जितना मैने जिया है कुछ थी गलतियाँ मेरे सीने में जो अब मेहनत की कब्र में सोने जा रही है पर दुनिया को नही फुरसत अभी भी सीने को छलनी करने बार बार कुरेद रहें है।

डरते लोग शून्य से है
मैं तो डरा अनंत से ही
हारा तो मैं कभी नही
जीत भी तो मिली नही
सुनु रास्तो की या खुद
रास्ता ही ना बन जाऊ
बन उजाला दुसरो को
सच की ये राह दिखाऊ
सांस का तो धोखा है
जिंदगी तो तोहफा है
न जाने कब किस घड़ी
ये तोहफा भी छिन जाए
दिन के उजाले में
वो रात ना आ जाये
जब सब रोये और
हम ही सो जाएं

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