स्वप्न जो था
सच न वो था
सुकून था
पर जो भी था
टूटा जब
टूटा मैं
अंदर से।
जगा जब
जग सोया था
भोर हुआ था
तारे लौटते थे
सूर्य क्षितिज पे
इंतजार में
नयी सुबह के।
उठा बिस्तर से
न निकला स्वप्न से
दुविधा ऐसी
जान लगी फसी
गायब हुई हसी
स्वप्न सही या
जीवन सही।
लड़ाई चली उम्र भर
न स्वप्न हुए ख़त्म
न भरे कोई जख्म
चोट ऐसी दिल पे
खायी ऐसी हमने
सो जाये तो भय
जागे तो लगे स्वप्न।
-अमित(Mait)
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